Friday, 29 October 2010

शुक्रवार व्रतकथा FRIDAY SPECIAL

शुक्रवार व्रतकथाशुक्रवा संतोषी माता की व्रत कथा विधिएक बुढ़िया थी और उसके सात पुत्र थे । छः कमाने वाले थे, एक निकम्मा था । बुढ़िया मां छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो कुछ बचता सो सातवें को दे देती थी । परन्तु वह बड़ा भोलाभाला था, मन में कुछ विचार न करता था । एक दिन अपनी बहू से बोला " देखो । मेरी माता का मुझ पर कितना प्यार है । वह बोली " क्यों नही, सबका जूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है । वह बोला " भला ऐसा भई कहीं हो सकता है । मैं जब तक आँखों से न देखूं, मान नहीं सकता । बहू ने हँसकर कहा " तुम देख लोगे तब तो मानोगे। कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया । घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड़डू बने । वह जांचने को सिरदर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा । छहो भाई भोजन करने आये । उसने देखा माँ ने उनके लिये सुन्दरसुन्दर आसन बिछाये है । सात प्रकार की रसोई परोसी है । वह आग्रह करके जिमाती है, वह देखता रहा । छहो भाई भोजन कर उठे तब माता ने उनकी जूठी थालियों में से लड़डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया।
जूठन साफकर बुढ़िया माँ ने पुकारा " उठो बेटा । छहों भाई भोजन कर गये अब तू ही बाकी है, उठ न, कब खायेगा । वह कहने लगा " माँ, मुझे भोजन नहीं करना । मैं परदेश जा रहा हूँ । माता ने कहा " कल जाता हो तो आज ही जा । वह बोला " हांहां, आज ही जा रहा हूँ । यह कहककर वह घर से निकल गया । चलते समय बहू की याद आई । वह गोशाला में उपलें थाप रही थी, वहीं जाकर उससे बोला " हम जावें परदेश को आवेंगे कुछ काल । तुम रहियो संतोष से धरम आपनो पाल ।। वह बोली जाओ पिया आनन्द से हमरुं सोच हटाय । राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय ।। देख निशानी आपकी देख धरुँ मैं धीर । सुधि हमारी मति बिसारियो रखियो मन गंभीर ।। वह बोला " मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे । वह बोली " मेरे पास क्या है यह गोबर से भरा हाथ है । यह कहकर उसकी पीठ में गोबर के हाथ की थाप मार दी।
वह चल दिया । चलतेचलते दूर देश में पहुँचा । वहाँ पर एक साहूकार की दुकान थी, वहां जाकर कहने लगा " भाई मुझे नौकरी पर रख लो । साहूकार को जरुरत थी, बोला " रह जा । लड़के ने पूछा " तनखा क्या दोगे । साहूकार ने कहा " काम देखकर दाम मिलेंगे । साहूकार की नौकरी मिली । वह सवेरे सात बजे से रात तक नौकरी बजाने लगा । कुछ दिनों में दुकान का सारा लेनेदेन, हिसाबकिताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा । साहूकार ने 78 नौकर थे । वे सब चक्कर खाने लगे कि यह तो बहुत होशियार बन गया है । सेठ ने भ काम देखा और 3 महीने में उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया । वह 12 वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छो़ड़कर बाहर चला गया।
अब बहू पर क्या बीती सो सुनो । सासससुर उसे दुःख देने लगे । सारी गृहस्थी का काम करके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते । इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल के खोपरे में पानी । इस तरह दिन बीतते रहे । एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुतसी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं । वह वहाँ खड़ी हो कथा सुनकर बोली " बहिनों । यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल ममिलता है । इस व्रत के करने की क्या विधि है । यदि तुम अपने व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा अहसान मानूंगी।

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